ज्ञान का अर्थ परिचय से है। ज्ञान योग वह मार्ग है जहां अन्तर्दृष्टि, अभ्यास और परिचय के माध्यम से वास्तविकता की खोज की जाती है। ज्ञान योग के चार सिद्धांत हैं :
- -विवेक-गुण-दोष का अन्तर कर पाना
- -वैराग्य-त्याग, आत्म त्याग, संन्यास
- -षट संपत्ति-छ: कोष, संपत्तियां
- -मुमुक्षत्व-ईश्वर प्राप्ति के लिए निरन्तर प्रयास
विवेक-गुण-दोष का अन्तर कर पाना
विवेक ज्ञान का सही रूप है। इसे हमारी चेतना की सर्वोच्च सभा भी कहा जा सकता है। हमारी चेतना हमें बताती है कि क्या सही है क्या गलत है। अधिकांशत: हम भली-भांति जानते हैं कि हमें क्या करना चाहिये, तथापि हमारी अहंकारी इच्छाएं अधिक दृढ़तर रूप में प्रगट होती हैं और हमारे भीतर की अंतर्रात्मा की आवाज को दबा देती है।
वैराग्य-त्याग-आत्म-त्याग- संन्यास
वैराग्य का अर्थ किसी भी सांसारिक सुख या स्वामित्व के लिए इच्छा को त्याग कर आन्तरिक रूप से स्वयं को मुक्त कर लेना है। ज्ञान योगी ने यह अनुभव कर लिया है कि सभी सांसारिक सुख अवास्तविक हैं और इसलिये मूल्यहीन हैं। ज्ञान योगी अपरिवर्तनकारी, शाश्वत, सर्वोच्च, ईश्वर को खोजता है। इस पार्थिव शासन की सभी वस्तुएं परिवर्तनशील हैं और इसीलिए अवास्तविकता का रूप हैं। वास्तविकता है आत्मा, दिव्य आत्मा, जो अनश्वर, शाश्वत और अपरिवर्तनीय है। आत्मा आकाश से तुलनीय है। आकाश सदैव आकाश है – कोई इसे जला या काट नहीं सकता। यदि हम दीवार बना देते हैं तो हम एकाकी “व्यक्तिगत” हिस्से सृजन करते हैं। तथापि आकाश इस कारण स्वयं को नहीं बदलता और जिस दिन दीवारें हटा ली जाती हैं उस दिन केवल अविभक्त, असीम आकाश शेष रह जाता है।
षट संपत्ति-छ: कोष,
संपत्तियां-ज्ञान योग के इस सिद्घान्त में छ: सिद्धान्त सम्मिलित हैं ;शम-इन्द्रियों और मन का निग्रह। दम-इन्द्रियों और मन पर नियन्त्रण। निषेधात्मक कार्यों से स्वयं को संयमित करना – जैसे चोरी करने, झूंठ बोलने और निषेधात्मक विचार।
उपरति-वस्तुओं से ऊपर उठना। तितिक्षा-अटल रहना, अनुशासित होना। सभी कठिनाइयों में धैर्य रखना और उन पर विजय प्राप्त करना।
श्रद्धा-पवित्र ग्रन्थों और गुरू के शब्दों पर विश्वास और भरोसा रखना। समाधान-निश्चय करना और प्रयोजन रखना। चाहे कुछ भी हो जाये हमारी अपेक्षाएं उसी लक्ष्य की ओर निर्धारित होनी चाहिये। इस लक्ष्य से हमें अलग करने वाला कोई भी नहीं होना चाहिये।
मुमुक्षत्व – ईश्वर प्राप्ति के लिए निरन्तर प्रयास
मुमुक्षत्व हृदय में ईश्वर की अनुभूति और ईश्वर के साथ समाहित हो जाने की ज्वलन्त इच्छा ही है। सर्वोच्च और शाश्वत ज्ञान ही आत्मज्ञान, अपने सत्य स्व-आत्मा की अनुभूति है। स्व-अनुभूति यह अनुभव है कि हम ईश्वर से भिन्न नहीं हैं, बल्कि ईश्वर और जीवन सब कुछ एक ही है। व्यक्ति को जब यह अनुभूति हो जाती है, तब बुद्धि के कपाट खुल जाते हैं और वह परम सत्ता हो जाता है। सर्व सम्मिलित प्रेम हमारे हृदय में भर जाता है। यह भी स्पष्ट हो जाता है कि जो भी कुछ अन्य लोगों को दु:ख देते हैं, अन्ततोगत्वा उससे हमें भी हानि होती है, इसलिये अन्त में हम समझ जाते हैं और अहिंसा के शाश्वत भाव की आज्ञा पालन करते हैं। इस प्रकार ज्ञानयोग का मार्ग भक्ति योग, कर्म योग और राजयोग के सिद्धान्तों से जुड़ जाता है।राजयोग राज का अर्थ है सम्राट। सम्राट स्व-अधीन होकर, आत्म विश्वास और आश्वासन के साथ कार्य करता है। इसी प्रकार एक राजयोगी भी स्वायत्त, स्वतंत्र और निर्भय है। राज-योग आत्मानुशासन और अभ्यास का मार्ग है। राजयोग को अष्टांग-योग भी कहते हैं क्योंकि इसे आठ-योगों (चरणों) में संगठित किया जाता है। वे हैं:-यम-आत्म नियंत्रण -नियम-अनुशासन-आसन-शारीरिक व्यायाम-प्राणायाम-श्वास व्यायाम-प्रत्याहार-बाह्य पदार्थों से इन्द्रियों को अनासक्त कर लेना -धारणा-एकाग्रता-ध्यान-मन को ईश्वर में लगाना-समाधि-पूर्ण ईश्वरानुभूति राजयोग के आठ चरण आन्तरिक शान्ति, स्पष्टता, आत्म सयंम और ईश्वरानुभूति के लिए विधिवत अनुदेश एवं शिक्षा प्रदान करते है। यम – आत्म नियंत्रणआत्म-नियंत्रण, इसके पांच सिद्धान्त है अहिंसा- हिंसा नहीं अहिंसा का अर्थ है किसी भी जीवित प्राणी को विचार, शब्द या व्यवहार से तकलीफ या हानि नहीं पहुंचाना। अहिंसा का अर्थ मारना नहीं भी है। मांस-आहार भोजन में किसी पशु की मृत्यु जरूरी है। इसी सिद्धान्त के अनुसार योगी शाकाहारी होते हैं। पशुओं में एक सहज स्वभाव है जो उनके ऊपर मंडरा रही मृत्यु के प्रति सजगता को बढ़ा देता है। उनको लगने लगता है कि अब उसे मारा जाएगा और वे मृत्यु भय से ग्रस्त हो जाते हैं। उनके संपूर्ण शरीर से डर और दबाव के हार्मोन्स निकलने लगते हैं। ये हार्मोन्स वध किये गये पशु-पक्षियों के मांस में रहते हैं और जाने-अनजाने में व्यक्तियों द्वारा खा लिया जाता है। अनेक प्रत्यक्षत: निराधार आशंकाएं, डर, तंत्रिका रोग और मनोभावों का मूल इस भोजन में है। सत्य – विश्वासपात्र सदैव सत्य बोलना अच्छी और सही बात है किन्तु अधिक महत्त्वपूर्ण यह है कि हम सत्य को किस प्रकार बोलते हैं। हमारे में सामर्थ्य है कि हम सत्य ऐसे भी बोलते हैं जैसे किसी को चाकू मार दिया हो, किन्तु हम इस योग्य भी हैं कि हम उसी सत्य पर प्रिय शब्दों का आवरण चढ़ा दें। जैसा ऊपर कहा गया है, अहिंसा के सिद्धान्त का उल्लंघन न हो। हमें महाप्रभुजी के परामर्श की ओर ध्यान देना चाहिये, जिन्होंने कहा था “आपका प्रत्येक शब्द आपके होठों से फूलों के समान गिरना चाहिये”। सत्यवादी होने का अर्थ अपनी भावनाओं को नहीं छुपाना भी है, न बोलना या बहाने करना भी नहीं है। कदाचित कुछ समय के लिए हम अन्य लोगों से सत्यता को छुपा लेते हैं, किन्तु कम से कम एक व्यक्ति है जो हमारे आन्तरिक सत्य को जानता है, वह है हमारा अपना स्व, हमारी अपनी चेतना एक साक्षी है। अस्तेय-चोरी न करना अस्तेय का अर्थ है कि आप कभी ऐसी वस्तु न लें जो अधिकारपूर्वक किसी अन्य से संबंधित है। इसका अर्थ है न केवल भौतिक वस्तुएं अपितु मानसिक संपति का चुराना, किसी व्यक्ति का एक अवसर, उसकी आशा या प्रसन्नता का अपहरण भी है। प्रकृति का शोषण और पर्यावरण का विध्वंस भी इस श्रेणी में आते हैं।
ब्रह्मचर्य-जीवन का शुद्ध पथ ब्रह्मचर्य का अनुवाद प्राय: यौन निग्रह के रूप में किया जाता है। किन्तु यह वास्तविकता में इससे भी अधिक है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है कि हमारे विचार सदैव ईश्वर की ओर ही प्रेरित रहें। इसका विहितार्थ यह नहीं है कि हम इस विश्व में अपने कर्तव्यों की उपेक्षा करें। इसके विपरीत हम इन उत्तरदायित्वों को अत्यधिक सावधानी के साथ निभायें, किन्तु सदैव इस बात का ध्यान रखते हुए कि “मैं कर्ता नहीं हूँ, ईश्वर मात्र ही कर्ता है।” अपरिग्रह-वस्तुओं का संग्रह नहीं करना हमें वस्तुओं का संग्रह नहीं करना चाहिये, अपितु उनको केवल प्राप्त कर लें, और जीवित रहने के लिये जैसी आवश्यकता हो उनका उपयोग करें। जिनके पास बहुत सारी वस्तुएं हैं उसे चिन्ताएं भी बहुत होती हैं। हम बिना कोई चीज लाए पैदा होते हैं, और जब हम इस संसार से विदा होते हैं तब हम सब कुछ अपने पीछे छोड़ जाते हैं। अपरिग्रह का अर्थ अन्य लोगों को उनकी स्वतन्त्रता देना भी है – उनको पकड़ कर रखना नहीं। उनको मुक्त रखने पर हम भी अपने आपको स्वतन्त्र कर लेते हैं। इसलिये स्वतन्त्रता देने का अर्थ स्वयं भी मुक्त हो जाना है। नियम – अनुशासन इसके पांच सिद्धान्त है : शौच-शुद्धता न केवल बाह्य शुद्घता, अपितु इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण है आन्तरिक शुद्धता। हमारी वेषभूषा, हमारा शरीर, उन्हीं के समान हमारे विचार और भावनाएं भी शुद्ध होने चाहिये। यह बात उन लोगों के लिए भी सत्य है जिनके साथ हम जुड़ते हैं। हमारे आध्यात्मिक विकास के लिए यह बहुत अधिक लाभदायक है कि हम उन लोगों का अच्छा साथ रखें, जिनका हमारे ऊपर सद्प्रभाव होता है, जो आध्यात्मिक हैं और जो अपनी बुद्घि से हमें सहारा देते हैं। सन्तोष-संतुष्टि हम जिस धन को अपने पास रखने के योग्य (समर्थ) हैं, वह महानतम धन संतोष है। भारतीय कवि तुलसीदास ने कहा है: “आप स्वर्ण और अन्य मूल्यवान नगों की खानें अपने स्वामित्व में रख सकते हैं, किन्तु आन्तरिक असंतोष सारे धन का विनाश कर देता है।” हम संतोष तभी प्राप्त कर सकते हैं कि जब हम जान जाते हैं, कि सभी सांसारिक सामान असंतोष लाता है और आन्तरिक धन ही भौतिक वस्तुओं से अधिक प्रसन्नता एवं सुख प्रदान करता है। तप-आत्म-नियन्त्रण, आत्म-अनुशासन जीवन में जब हम प्रतिकूलता और बाधाओं से घिरे होते हैं, तब हमें हताश कभी भी नहीं होना चाहिये। इसके स्थान पर हमें अपने चुने हुए मार्ग पर दृढ़ निश्चय के साथ बढ़ते रहना चाहिये। आत्म-अनुशासन, धैर्य और दृढ़ प्रतिज्ञा के साथ अभ्यास निरंतर जारी रखना – यही सफलता की कुंजी है।
स्वाध्याय-पवित्र ग्रन्थों का अध्ययन योग के आकांक्षियों के रूप में हमें अपने परम्परागत योग दर्शन के पवित्र ग्रन्थों यथा भगवद् गीता, उपनिषद्, पातंजलि के योग सूत्रों आदि से भी परिचित हो जाना चाहिये। ये महाग्रन्थ हमें योग मार्ग पर जाने के लिए अति मूल्यवान ज्ञान और सहायता प्रदान करते हैं। ईश्वर प्रणिधान- ईश्वर की शरण आप जो भी कुछ करते हैं वह सब दिव्य आत्मा ईश्वर को पूर्ण निष्ठा के साथ समर्पित कर दें। ईश्वर उन सब की रक्षा करता है जो विश्वास और भक्ति के साथ अपना सर्वस्व समर्पण कर देते हैं।आसन- शारीरिक व्यायामप्राणायाम- श्वास व्यायाम शरीर और श्वास पर नियन्त्रण करने की प्रक्रिया में राजयोगी मन पर नियन्त्रण भी कर लेते हैं। इससे वे आन्तरिक शक्तियां जागृत हो जाती हैं जो आध्यात्मिक पथ पर मार्गदर्शन करना जारी रखती हैं।
प्रत्याहार- बाह्य पदार्थों से इन्द्रियों को अनासक्त कर लेना योगी अपने मन और इन्द्रियों को अपनी इच्छानुसार आन्तरिक व बाह्य दिशा में संचालित करने के योग्य होते हैं। जिस तरह एक कछुआ अपने अंगों और सिर को अपने शरीर के आवरण में वापस ले आता है और फिर बाहर निकाल देता है। एक बार नियन्त्रित प्रत्याहार हो जाने पर बाहरी परिस्थितियों से मुक्ति मिल जाती है। ऐसा व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को बाहरी वस्तुओं से तुरंत वापस ले सकता है और जब इच्छा हो उन्हीं इन्द्रियों को पूरी जागरूकता के साथ रहते हुए उपयोग में भी ला सकता है।
ध्यान के प्रथम चरणों में हम शरीर को निश्चल, आंखें बन्द कर, शान्त मन और एकाग्रता के साथ, आन्तरिक दिशा में मार्गदर्शित कर प्रत्याहार का अभ्यास करते हैं। कुछ विशिष्ट विधि हैं जिनके माध्यम से हम प्रत्याहार का अभ्यास कर सकते हैं। एक ध्यान का व्यायाम ध्वनि का सहज पर्यवेक्षण करके बाहरी ध्वनियों उनकी प्रकृति, अन्तर आदि पर ध्यान देकर किया जा सकता है। आहिस्ता-आहिस्ता जागरूकता, शरीर के भीतर की ध्वनियों (हृदय की धड़कन, रक्त संचरण आदि) की ओर, जो व्यक्ति के “आन्तरिक आकाश” में गूंजती है, उनकी ओर ले जाती है। यह केवल तब होता है जब व्यक्ति प्रत्याहार के चरण में पूर्णत: निपुण हो जाता है। तब हम एकाग्रचित्तता की ओर अग्रसर होकर प्रगति कर सकते हैं।
धारणा-एकाग्रता धारणा का अर्थ व्यक्ति द्वारा अपने विचारों और भावनाओं को किसी एक ही वस्तु पर ले आना है। प्राय: हम इस प्रकार केवल थोड़े समय के लिए ही ऐसा करने में सफल होते हैं, फिर अन्य विचार आ जाते हैं और हमें भटका देते हैं। हम कुछ ही मिनटों के बाद अपनी एकाग्रता के अभाव को जान लेते हैं। जब तक हम, किसी भी परिस्थिति में कितनी भी लंबी अवधि के लिए किसी भी विचार या वस्तु पर चित्त एकाग्र करने के योग्य नहीं हो जाते तो माना जायेगा कि हम ‘धारणा’ में अभी निपुण नहीं हुए हैं।
मोमबत्ती पर ध्यान (त्राटक), विशेष आसनों और प्राणायामों, साथ में मंत्रों का दोहराना, एकाग्रता की योग्यता बढ़ाने में बहुत सहायता करते हैं।
ध्यान – मन को ईश्वर में लगाना सभी ध्यान विधियां सच्चे ध्यान के लिए प्राथमिक व्यायाम है। व्यक्ति ध्यान करना सीख नहीं सकता, ठीक उस तरह जैसे हम निद्रा लेना नहीं ‘सीख’ सकते। निद्रा उस समय घटित होती है जब हमारा शरीर तनावहीन और शान्त होता है। ध्यान तब होता है जब मन शान्त होता है। ध्यान में कोई कल्पना नहीं होती, क्योंकि कल्पना बुद्घि से उठती है। हम मानव मस्तिष्क की तुलना एक अति शक्तिशाली कम्प्यूटर से कर सकते हैं, जिसमें विशाल भंडारण क्षमता है। ब्रह्माण्ड के सभी आंकड़े इसमें संग्रहीत कर सकते हैं किन्तु इस ‘कम्प्यूटर’ की भी सीमा होती है। हमारा मानव मस्तिष्क केवल उसी को पुन: प्रस्तुत कर सकता है जो इसमें पहले प्रविष्ट कर दिया गया हो। किन्तु ध्यान में, हम विशुद्ध होना ही अनुभव करते हैं। जिस क्षण बुद्धि स्थिर होती है और वैयक्तिक अहम् अस्तित्वहीन हो जाता है, दिव्य प्रकाश हमारे हृदय में चमक उठता है और हम उसके साथ समाहित हो जाते हैं।
समाधि-पूर्ण ईश्वरानुभूति समाधि वह अवस्था है जहां ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय एक हो जाते हैं। ज्ञाता (अभ्यास करने वाला व्यक्ति), ज्ञान (ईश्वर क्या है) और ज्ञेय (अर्थात् ईश्वर) एक हो जाते हैं। इसका अर्थ है कि व्यक्ति दिव्य चेतना के साथ समाहित (जुड़) हो जाता है। जो समाधि प्राप्त कर लेते हैं वे एक स्वर्गिक, उज्ज्वल प्रकाश देखते हैं, स्वर्गिक ध्वनि सुनते हैं और अपने ही में एक अनन्त विस्तार देखते हैं। जब समाधि मिल जाती है, हम उस नदी के समान हो जाते हैं जो एक कठिन और लंबी यात्रा के बाद अन्त में समुद्र में मिल जाती है। सभी बाधाएं दूर हो जाती हैं और नदी सदा के लिए समुद्र में समाहित हो जाती है। इसी प्रकार एक योगी अपनी यात्रा के पश्चात् सर्वोच्च चेतना के साथ समाहित हो जाता है। योगी की चेतना शाश्वत शान्ति, निश्चलता और परमानन्द प्राप्त कर लेती है-योगी मुक्त है। यह अनुभव शब्दों में बताया नहीं जा सकता, क्योंकि जिसने दूध का स्वाद लिया है, वही बता सकता है कि दूध का स्वाद कैसा है; जिसने दर्द भोगा है वही जानता है दर्द क्या है; जिसने प्रेम किया है वही जानता है प्रेम क्या है;
समाधि को प्राप्त व्यक्ति ही जानता है कि समाधि क्या है। इस अवस्था में द्वैतता नष्ट हो जाती है। कोई दिन या रात नहीं, न अंधकार न ही प्रकाश, न कोई गुण न कोई रंग। सर्वोच्च सत्ता में सब कुछ एक ही है। व्यक्ति की आत्मा का ब्रह्माण्ड की आत्मा से मिलन ही योग का उद्देश्य है।
भक्तियोग भक्ति का अर्थ है प्रेम और ईश्वर के प्रति निष्ठा – सृष्टि के प्रति प्रेम और निष्ठा, सभी प्राणियों के प्रति सम्मान और उनका संरक्षण। हर कोई भक्तियोग का अभ्यास कर सकता है, चाहे छोटा हो या बड़ा, धनी अथवा निर्धन, चाहे वह किसी भी राष्ट्र या धर्म से संबंध रखता हो। भक्तियोग का मार्ग हमें अपने उद्देश्य की ओर सीधा और सुरक्षित पहुंचा देता है।
भक्तियोग में ईश्वर के किसी रूप की आराधना भी सम्मिलित है। ईश्वर सब जगह है। ईश्वर हमारे भीतर और हमारे चारों ओर निवास करता है। यह ऐसा है जैसे हम ईश्वर से एक उत्तम धागे से जुड़े हों – प्रेम का धागा। ईश्वर विश्व प्रेम है। प्रेम और दैवी अनुकम्पा हमारे चारों ओर है और हमारे माध्यम से बहती है, किन्तु हम इसके प्रति सचेत नहीं हैं। जिस क्षण यह चेतनता, यह दैवीय प्रेम अनुभव कर लिया जाता है उसी क्षण से व्यक्ति किसी अन्य वस्तु की चाहना ही नहीं करता। तब हम ईश्वर प्रेम का सच्चा अर्थ समझ जाते हैं।
भक्तिहीन व्यक्ति एक जलहीन मछली के समान, बिना पंख के पक्षी, बिना चन्द्रमा और तारों के रात्रि के समान है। सभी को प्रेम चाहिये। इसके माध्यम से हम वैसे ही सुरक्षित और सुखी अनुभव करते हैं जैसे एक बच्चा अपनी माँ की बाहों में या एक यात्री एक लम्बी कष्टदायी यात्रा की समाप्ति पर अनुभव करता है।
भक्ति के दो प्रकार हैं :
अपरा भक्ति – अहम् भावपूर्ण प्रेम-परा भक्ति – विश्व प्रेम भक्त उसके साथ जो भी घटित होता है, उसे वह ईश्वर के उपहार के रूप में स्वीकार करता है। कोई इच्छा या अपेक्षा नहीं होती, ईश्वर की इच्छा के समक्ष केवल पूर्ण समर्पण ही होता है। यह भक्त जीवनभर स्थिति को प्रारब्ध द्वारा उसके समक्ष प्रस्तुत वस्तु के रूप में ही स्वीकार करता है। इसमें कोई ना नुकर नहीं, उसकी एक मेव प्रार्थना है ‘ईश्वर तेरी इच्छा’।
तथापि ईश्वर के प्रति सर्वोच्च प्रेम के इस स्तर को पहुंचने से पूर्व हमारी भक्ति अहम् भाव पूर्ण विचारों से ओत-प्रोत होती है। इसका अर्थ है कि हम वास्तव में ईश्वर से तो प्रेम करते हैं, किन्तु ईश्वर से कुछ कामना भी करते हैं। बहुत लोग जब दुख में या परेशानी में होते हैं तब वे सहायता के लिए ईश्वर की ओर जाते हैं। अन्य लोग भौतिक पदार्थों, धन, यश, आजीविका, पदोन्नति के लिए प्रार्थना करते हैं। फिर भी हमें यह सदैव ध्यान रखना चाहिये कि जब हम इस पृथ्वी से विदा होते हैं तब हम अपना सब कुछ छोड़ जायेंगे और यही कारण है कि यहां की किसी भी वस्तु का कोई सचमुच या अनंतकालीन मूल्य नहीं है। आध्यात्मिक खोजी लोग बुद्घि और ईश्वर प्राप्ति के लिए प्रार्थना करते हैं। तथापि, हम प्राय: ईश्वर का एक आन्तरिक चित्र सृजन कर लेते हैं – हमारी दृष्टि से ईश्वर कैसा है, ईश्वर को अब क्या करना चाहिये – और क्योंकि इस कारण हम दैवीय प्रगटिकरण के लिये खुले और तैयार नहीं।
भक्ति सूत्रों में नारद मुनि (ऋषि) ने भक्तियोग के नौ तत्वों का वर्णन किया है:-सत्संग-अच्छा आध्यात्मिक साथ ईश्वर के बारे में सुनना और पढऩा
श्रद्धा-विश्वास ईश्वर भजन-ईश्वर के गुणगान करना मंत्र जप-ईश्वर के नामों का स्मरण शम दम-सांसारिक वस्तुओं के संबंध में इन्द्रियों पर नियंत्रण संतों का आदर-ईश्वर को समर्पित जीवन वाले व्यक्तियों के समक्ष सम्मान प्रगट करना।
संतोष-संतुष्टि ईश्वर प्रणिधान-ईश्वर की शरण भक्ति के बिना कोई आध्यात्मिक मार्ग नहीं है। यदि विद्यालय का एक छात्र अध्ययन के किसी विषय को नापसंद करता है, तो वह पाठ्यक्रम को मुश्किल से पूरा कर पाता है। इसी प्रकार हमारे अभ्यास के लिए जब प्रेम और निष्ठा है, हमारे मार्ग पर चलते रहने का दृढ़निश्चय और हमारे उद्देश्य के संबंध में सदैव मान्यता हो तभी हम सभी समस्याओं का समाधान करने के योग्य हो सकते हैं। हम सभी जीवधारियों के प्रति प्रेम और ईश्वर के प्रति निष्ठा के बिना ईश्वर का साहचर्य प्राप्त नहीं कर सकते है। ( साभार – शक्ति उपासक अज्ञानी )